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कविता

बुढ़ापा की न लाठी है

जीत नाराइन


बुढा़पा की न लाठी है और न अपना देश है न अपना साथी
सूरीनाम नया हुआ तो क्‍या दूसरे फिर नए दिन की गाँठ पडी़?
अब जान-बूझकर सरनाम को अपना गाँव चुना
कितने दिन संतोष हुआ, ताकत लगी, सब गाँठों को खोलते हुए !
खुली भी गाँठ तो तुम ठहरे दूसरी जात के

जो भाता है हमको, वही जगाता है हमको
मुकाबला करने के लिए अपने लाल को अपनी पीढी़ से काम पडा़
रहे तो देहाती ही फिर भी आँख की कड़क थी
शहर में जाकर पड़ गए, कुली देहात को छोड़कर
सूरीनाम निवासी शहरिया से हो गए

 


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